कॉपी और किताबें महंगी,जूते और जुराबें महंगी,टाई-बेल्ट परिधान कीमती, शिक्षा का सामान कीमती,"सच मे महंगाई डायन मारे जात है!"

                         ✍️धीरेन्द्र सिंह राणा✍️                           

फतेहपुर। शिक्षा में बढ़ रही महंगाई को देखते हुए हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। उसमे भी इस अप्रैल के महीने ने आते ही लोगों के घरों का पूरा बजट बिगाड़ कर रख दिया है, क्योंकि इस माह में आगामी वर्ष के लिए स्कूल सत्र की शुरुआत हो गई है। पिछले वर्ष की अपेक्षा इस बार बच्चों की कॉपी-किताबों से लेकर यूनिफॉर्म के दामों में इजाफा हो गया है। जिससे स्वाभाविक है कि अभिभावकों पर महंगाई का बोझ बढ़ गया है। अभिभावक अपने-अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं,परन्तु खर्च का बोझ इतना बढ़ गया है कि बच्चों को आगे कैसे पढ़ाएं, ये सोच-सोच कर महंगाई की मार झेल रहे अभिभावक परेशान है। एक तो स्कूलों में महंगे कोर्स और ऊपर से स्कूलों में हर साल हो रही फीस वृद्धि और फिर प्रत्येक वर्ष कोर्स की बदलती किताबों से अभिभावक परेशान है। आजकल जिधर देखों उधर ही किताबों की दुकानों पर कापी किताब के अलग-अलग सेट लगे दिख रहे हैं। अधिकतर स्कूलों से बुक सेंटर्स की सेटिंग है जिससे अभिभावकों से मनमाने पूरे प्रिंट रेट के दाम वसूल किए जा रहे हैं। स्कूलों की कॉपी किताबें ही नही ड्रेस, टाई-बेल्ट बैग, जूते-मोजे भी विद्यालयों की सेटिंग और सहमति वाले दुकानों पर ही मिल रहे हैं। एक विद्यालय की किताबें उसी कक्षाओं की दूसरी दुकानों पर नही मिल रही है। कांवेंट स्कूलों की शिक्षा दिन ब दिन महंगी होने का सबसे बड़ा कारण यही है। जबकि विद्यालयों में एनसीईआरटी की पुस्तकें अनिवार्य की गई हैं, लेकिन अब भी अधिकतर स्कूलों में निजी प्रकाशकों की पुस्तकें ही चलाई जा रही हैं। विद्यालय संचालकों ने पुस्तक विक्रेताओं से सेटिंग समझौता कर रखा है। स्कूल से बताई गई दुकान पर जाने के बाद अभिभावक को केवल स्कूल व क्लास बताना पड़ता है कापी किताबों से लेकर ड्रेस, टाई-बेल्ट, बैग, जूते, मोजे तक उपलब्ध करा दिए जाते हैं जिसका पूरा प्रिंट रेट लिया जाता है। जहाँ इस बढ़ती महंगाई में जनता के लिए घर चलाना पहले ही मुश्किल था, लेकिन अब बच्चों की शिक्षा महंगी होने से मध्यम वर्ग की कमर ही टूट कर रह गई है। हर सरकार बनती है वादे करती है, नियम कायदे बनाती है पर अंत में सरकारें सिर्फ एक-दूसरे को कोसती रह जाती हैं। कोई कहता है पुराने दिन ही भले थे, कोई अच्छे दिन की ढांढस बंधाता रह जाता है। लेकिन महंगी होती शिक्षा की ये समस्या जस की तस मुंह बाय़े खड़ी रहती है। ऐसे में फिल्म पीपली लाइव का ये गाना लोगों की जुबान पर बरबस आ ही जा रहा हैं कि "सखी सैंया तो ख़ूबहीं कमात है महंगाई डायन खाए जात है।"@rana


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