बावन शहीदों की शहादत की चश्मदीद गवाह बावनी इमली

             गिरिराज शुक्ला  "लालपूत"/ फतेहपुर               

28 अप्रैल 1858 में क्रांतिवीरों का सबसे बड़ा नरसंहार

ठा० जोधासिंह अटैया सहित 52 को दी गयी थी सजा ए फांसी

★  एक माह तक झूलते और सड़ते रहे शव

अंग्रेजी क्रूरता के बाद भी नहीं बुझी क्रांति की ज्वाला 

बिन्दकी-फतेहपुर

बावन क्रांतिकारियों की शहादत का गवाह बावनी इमली शहीद स्थल समय के थपेड़े झेलते हुये आज भी अतीत के गौरव की कहानी कह रहा है लेकिन शहीदों की याद में न इस जगह को ठीक से संवारा ही गया, न ही इस बूढ़े पेड़ की देखरेख के पुख्ता इंतजाम किये गये जिस पर 28 अप्रैल 1858 को 52 क्रांतिकारियों को सामूहिक रुप से फांसी दी गयी थी और एक माह से अधिक समय तक शव लटकते रहे थे। यही नहीं आजादी के 75 साल बाद भी शेष 51 अमर शहीदों का नाम पता तक जानने की कोई सार्थक कोशिश नहीं की गई।


फतेहपुर जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी पश्चिम मुगुलरोड पर स्थित इस इमली के पेड़ पर 28 अप्रैल 1858 को अंग्रेज हुक्मरानों के खिलाफ छापामारयुद्ध लड़ने वाले ठा० जोधा सिंह व उनके 51 साथियों को फांसी दे दी गयी थी इन्हीं शहीदों की याद में इस पेड़ को बावनी इमली कहा जाने लगा।

              स्वतंत्रता आंदोलन की जानकारी देते हुए अरुण द्विवेदी एडवोकेट ने बताया कि 7 जुलाई 1857 को मेजर रिनार्ड और हैवलाक अपनी अपनी सेनाओं के साथ औग तक बढ़ आये जहाँ ठा० जोधा सिंह और महराज सिंह ने इन्हें कानपुर की ओर बढ़ने से रोका। यहीं बिठूर के नाना साहेब धाँधू पंत के सेनापति बालाराव भी अपनी सैनिक टुकड़ी सहित आ गये, लेकिन अंग्रेज सेना ने क्रांतिकारियों को भारी क्षति पहुंचाई। उधर हिकमत उल्ला खां को गिरफतार कर लिया गया और उनका सर कलम करके फतेहपुर कोतवाली में टांग दिया गया ताकि कोई अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का साहस न कर सके ।

          26 नवम्बर 1857 को अंग्रेजी सेना के प्रमुख मि० विडप से पांडु नदी पुल में मुठभेड हुयी और तात्या टोपे, ठा० जोधा सिंह व महराजसिंह आदि ने विदप को उल्टे पैर लौटने पर मजबूर कर दिया और उसके बाद कानपुर में क्रांतिकारियों ने कब्जा कर लिया।

       ठा० जोधा सिंह अटैया अर्गल नरेश विशम्भर देव के सेनापति ठा० पर्वत देव के वंशज थे। 1857 में अर्गल के तत्कालीन राजा गनपत सिंह की जमींदारी कुल पांच गाँव अर्गल, नरैचा, सिकठ्ठनपुर, जरौली और शिवपुरी में रह गयी थी। वह भी अंग्रेजों ने छीनकर ठा० जोधासिंह

सहित क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करवाने वाले मुखबिर को आधा हिस्सा पुरस्कार स्वरुप दे दिया था।

               ठा० जोधा सिंह ने ठा० दरियाव सिंह और ठा० शिवदयाल सिंह के साथ गोरिल्ला युद्ध की शुरुआत की थी। इन्होने अवध एवं बुंदेलखंड के क्रांतिकारियों को एकसूत्रता में बांधकर संगठित संघर्ष किया था ठा० जोधा सिंह और उनके साथियों ने 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपुर गाँव में एक दरोगा और अंग्रेज सिपाही को घेर कर मार डाला था। इन्होने उस घर में ही आग लगा दी थी, जिसमें दोनों ठहरे थे। गंगापार बेनीपुर पुलिस चैकी पर 7 दिसम्बर 1857 को हमला करके एक अंग्रेज परस्त को भी मौत की नींद सुलाकर पुलिस चौकी के कई घोड़े खोलकर ले आये थे। दोनो क्रांतिकिारियों ने जहानाबाद में 9 दिसम्बर 1857 को छापामार ढंग से तहसीलदार को बंदी बना लिया था।

         4 फरवरी 1858 को रणबाकुरे जोधा सिंह पर बिग्रेडियर करथ्यू ने उस समय असफल आक्रमण किया, जब वह छोटी तोपों और सशस्त्र साथियों सहित हमीरपुर से चाँदपुर होते हुये फतेहपुर की सीमा में घुसे। अंग्रेजों को नाकों चना चबाने के लिये मजबूर कर देने वाले इस अदम्य साहसी ने अमौली, जहानाबाद, खजुहा और कानपुर की तहसीलों और थानों को लूटना और नष्ट करना शुरु कर दिया, जिससे अंग्रेजों ने जोधा सिंह को कुख्यात डकैत कहना शुरु कर दिया। उस समय गोरिल्ला कार्यवाही का खजुहा प्रमख स्थान रहा है चारो ओर आने-जाने की सुविधा होने से अक्सर यहीं क्रांति की अलख जगाने वाले वीर एकत्र होते थे और भावी रणनीति तय करते थे। अक्टूबर माह की अंतिम तारीख को भी लगभग चार हजार क्रांतिकारी खजुहा में एकत्र में जिसकी जानकारी मुखबिर के जरिये इलाहाबाद से कानपुर जा रहे कर्नल कैंपवेल को हो गयी। उसके निर्देश पर कर्नल पावेल ने जाबाज क्रांतिकारियों के इस दल पर हमला कर दिया किन्तु इसमें कर्नल पावेल मारा गया। इसके बाद कैप्टन पील ने अपने हाथ में संचालन लेकर लड़ाई जारी रखी जिसमें क्रांतिकारी पक्ष को भारी क्षति पहुँची। अटैया रसूलपुर गाव के निवासी ठा० जोधा सिंह अटैया 28 अप्रैल 1858 को अर्गल के राजा गनपत सिंह से मिलकर अपने 51 साथियों के साथ लौट रहे थे कि तभी मुखबिर की सूचना पर कर्नल क्रिस्टाइल की घुड़सवार सेना ने छल-बल से उन्हें सभी साथियों के सहित घोरहा ग्राम के पास बंदी बना लिया। सभी को खजुहा से एक किमी पूर्व मुगुल रोड के किनारे स्थित इमली के पेड़ पर मि० ग्ल्यून ने फासी दे दी। बर्बरता की चरम सीमा यह थी कि सभी 52 शवों का अंतिम संस्कार करना तो दूर उन्हें पेड़ से उतारा तक नहीं गया।

        एक माह से अधिक समय तक यह शव इसी पेड़ पर झूलते रहे। किसी में इतना साहस न हुआ कि इन शवों का यथोचित संस्कार कर सके किन्तु ठा० जोधा सिंह अटैया के निकट

सहयोगी महराज सिंह ने गंगापार जाकर अपनी सैन्य शक्ति एकत्रित की और 16 मई 1858 को महराज सिंह ने गंगापार जाकर अपनी सैन्य शक्ति एकत्रित की और 16 मई 1858 को शिवराजपुर आ धमके अन्ततः तीन चार जून की रात्रि में अपने नौ सौ सशस्त्र साथियों के साथ बावनी इमली आकर चुपचाप शवों को उतारा और पौराणिक महत्व के शिवराजपुर गंगाघाट पर इन 52 नर कंकालों की अन्त्येष्टि की।

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