आदिवासी हिंदू नहीं, हेमंत सोरेन के बयान के समर्थन में उतरे बहुजन बुद्धिजीवी

महेश निषाद 

आ​दिवासी हिंदू नहीं हैं। एक बार फिर यह सुर्खियों में है। इसकी वजह यह कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन यह बात हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में कही। उनके इस बयान पर हिंदू संगठनों ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। वहीं बहुजन बुद्धिजीवी हेमंत सोरेन के बयान का समर्थन कर रहे हैं।



हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों की ओर से बीते 21 फरवरी, 2021 को एक कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। इसका विषय था ‘झारखंड कैसा है और भारत कैसा है?’ इसे संबोधित करते हुए झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि ‘आदिवासी कभी भी हिंदू नहीं थे और न हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। हमारा सबकुछ अलग है।’ उन्होंने आगे कहा था कि ‘हम अलग हैं, इसी वजह से हम आदिवासी में गिने जाते हैं। हम प्रकृति पूजक हैं।’ 


हेमंत सोरेन के इस कथन पर काफी प्रतिक्रियाएं हुईं। खासकर हिंदुत्ववादी संगठनों की प्रतिक्रिया काफी आक्रामक रही। 


हिंदुओं की तरह मूर्तिपूजक नहीं रहे हैं आदिवासी : सालखन मुर्मू


वहीं हेमंत सोरेन के पक्ष में अनेक आदिवासी बुद्धिजीवी खुलकर सामने आए। मसलन, आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सालखन मुर्मू कहते हैं– “आदिवासी मूर्ति पूजक नहीं हैं, प्रकृति पूजक हैं। आदिवासी समाज में वर्ण व्यवस्था नहीं है। आदिवासी समाज में सभी बराबर हैं। सभी साथ मिलकर काम करते हैं। समाज में ऊंच-नीच की कोई सोच नहीं है। आदिवासी मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर में पूजापाठ नहीं करते हैं। उनके पूजास्थल पेड़ों के बीच सरना या जाहेरथान आदि कहे जाते हैं। उनकी पूजा-अर्चना, उनके देवी-देवता प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं। क्योंकि प्रकृति को ही वे लोग अपना पालनहार मानते हैं। आदिवासियों की भाषा संस्कृति, सोच, पूजा पद्धति आदि पूरी तरह प्रकृति के साथ जुड़ी हुई हैं। आदिवासियों में दहेज प्रथा नहीं है। आदिवासी प्रकृति का दोहन नहीं करते, बल्कि उसकी पूजा करते हैं। इसलिए आज भारत के आदिवासी प्रकृति पूजा धर्म सरना धर्म कोड के साथ इस साल होनेवाली जनगणना में शामिल होना चाहते हैं, जो उनके अस्तित्व पहचान और एकजुटता के लिये जरूरी है।”


अंग्रेजों ने माना था कि हिंदू नहीं हैं आदिवासी : बिरसा सोय


बृहद झारखंड जनाधिकार मंच (झारखंड) के केंद्रीय अध्यक्ष और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (झारखंड) के प्रदेश संयुक्त सचिव बिरसा सोय कहते हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं है। अंग्रेजों ने भी यह माना था। उन्होंने वर्ष 1871 में आदिवासियों को ‘एबॉरिजन्स’ (आदिवासी), 1881 और 1891 में ‘एबॉरिजनल्स’ (आदिवासी), वर्ष 1901, 1911 और 1921 में ‘एनीमिस्ट’ (प्रकृति पूजक), वर्ष 1931 में आदिवासी धर्म मानने वाले तथा 1941 में ‘ट्राइब्स’ की संज्ञा दी। लेकिन आजाद होने के बाद पहली बार जब जनगणना 1951 में हुई तो आदिवासियों के साथ धोखा हुआ और अंग्रेजों के द्वारा दिया गया धर्म कोड हटाकर आदिवासियों को धर्म कॉलम में अनुसूचित जनजाति (एसटी) दिया गया, जबकि आदिवासियों को आदिवासी धर्म कोड मिलना चाहिए था। इसके बाद जब देश में 1961 को जनगणना हुई तो आदिवासियों का धर्म कोड समाप्त कर दिया गया। यही हमारे समाज में संदेह पैदा करता है और हमें चीख-चीख कर कहना पड़ रहा है कि हम आदिवासी हिंदू नहीं हैं।


भ्रामक शब्द है हिंदू : दिनेश दिनमणी


खोरठा साहित्यकार व व्याख्याता दिनेश दिनमणी का मानना है कि हिंदू शब्द ही भ्रामक है। “पहले तो यह एक स्थान विशेष के निवासियों के लिए व्यवहार किया गया था पर आज एक संप्रदाय विशेष के अर्थ में स्थापित कर दिया गया है। इस अर्थ में हिंदू का तात्पर्य वैसे समुदाय से है जो सनातन संस्कृति का अनुसरण कर जीवन जीते हैं। जिस संस्कृति में अवतारवाद, मूर्तिपूजा, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, जीवन के विविध संस्कारों में वैदिक पद्धति के विविध कर्मकांड और वर्ण व्यवस्था की अवधारणा की मान्यता है। इस आधार पर देखा जाए तो आदिवासी समुदाय हिंदू नहीं हैं। आदिवासी न तो मूर्तिपूजक हैं न ही वैदिक कर्मकांडों को करवाते हैं। उनके ईश्वर की अवधारणा भी हिंदू/सनातन दर्शन से भिन्न है।”


हमें अपने सिंगबोंगा पर विश्वास : योगो पुर्ती


पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता योगो पुर्ती कहते हैं कि “पीढ़ी दर पीढ़ी, विरासत में मिली अलिखित इतिहास, संस्कृति को आज भी आदिवासियों के जन जीवन, लोक जीवन, प्राचीन कथाओं व लोक कथाओं में जिंदा है। आदिवासी प्रकृति के प्रति समर्पण के साथ ही प्राकृतिक तौर पर जंगल, पहाड़, नदी एवं कृषि व जंगल में स्थित विशेष वृक्षों के प्रति आभार तो व्यक्त करते ही हैं, अपने पूर्वजों के संघर्षें को भी याद करते हैं। सिंगबोंगा पर विश्वास है।” 


पहले हिंदू या पहले आदिवासी : सोनाझरिया मिंज


आ​दिवासी हिंदू क्यों नहीं हैं? के सवाल पर सवाल करते हुए सिदो-कान्हो विश्वविद्यालय की कुलपति सोनाझरिया मिंज कहती हैं कि “पहले इसका विश्लेषण जरूरी है कि इस भूभाग पर पहले हिंदू आए या आदिवासी। इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है।” वहीं पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहती हैं कि “इतिहास गवाह है कि आदिवासी जहां भी गए, सबसे पहले जंगल-झाड़ को साफ किया। वहां र​हने लायक वातावरण तैयार किया। गांव बसाया। खेती लायक जमीन तैयार की। अपनी पूरी जीवन शैली को प्रकृति आधारित बनाया। प्रकृति के साथ खुद को जोड़े रखा, जिसे आज भी देखा जा सकता है। आदिवासी की संस्कृति, भाषा, पर्व-त्योहार सभी प्रकृति पर आधारित है, जो साबित कर देता है कि आदिवासियों को हिंदू नहीं कहा जा सकता है।” 


आदिवासी ही नहीं, दलित-पिछड़े भी हिंदू नहीं : बिलक्षण रविदास


तिलका मांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार के इतिहास विषय के प्रोफेसर बिलक्षण रविदास आदिवासियों को ही नहीं दलित व पिछड़ों को भी हिंदू नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि “क्योंकि आदिवासी शुरू से ही प्रकृति पूजक रहे हैं, उनकी पूरी जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व–त्योहार, पूजा पद्धति सभी हिंदूओं से बिल्कुल अलग है। उनके मुताबिक, आदिवासी ही नहीं, दलित व पिछड़े भी हिंदू नहीं हैं। हिंदू केवल ब्राह्मण हैं, क्योंकि हिंदू धर्म के किसी भी ग्रंथ में हिंदू शब्द का जिक्र नहीं है, हर जगह ब्राह्मण का जिक्र है। दलित व पिछड़े हिंदू नहीं हैं, वे हिन्दुत्व के गुलाम हैं।” 


हम हर मायने में हिंदुओं से अलग : शांति खलखो


आदिवासी साहित्यकार डॉ. शांति खलखो कहती कहती हैं कि “हम हिंदू इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमारी जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व–त्योहार, पूजा पद्धति, यहां तक कि मौत के बाद दफनाने या दाह संस्कार की पद्धति भी हिंदूओं से अलग है। हम प्रकृति पूजक हैं, हमारे यहां जाति व्यवस्था नहीं है, हमारे यहां कोई पंडित, पुजारी या पुरोहित की परंपरा नहीं है। हमारी परंपरा में स्त्री पुरूष की समान भागीदारी होती है। यहां तक कि अंतिम संस्कार में भी महिलाओं की समान भागीदारी होती है। कब्रगाह हो या श्मशान घाट वहां भी महिला–पुरूष मिलकर काम करते हैं। जल, जंगल, पहाड़ हमारे देवी देवता हैं। ये सारी चीजें हमें आदिवासी बनाती हैं और यह बताती है कि हम हिंदू नहीं हैं।”

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